In a famous scene from the film adaptation of The Count of Monte Cristo,फिल्म द काउंट ऑफ मोंटे क्रिस्टो, का एक प्रसिद्ध चित्रण उस जवान लड़के के 16वें जन्मदिन के लिए बिल्कुल अनुकूल था, “मेरे जवान मित्र, जीवन एक तूफान है। एक क्षण तुम सूर्य के प्रकाश का आनन्द उठाने लगते हो, और दूसरे ही क्षण चट्टानों पर बिखर जाते हो। तूफान आने पर तुम जो निर्णय करते हो वह तुम्हें एक आदमी बनाता है। तुम्हें तूफान को देखना है, और उस प्रकार करना है जिस प्रकार तुमने रोम में चिल्लाया था, “तुम अपनी पूरी ताकत झोंक दो, और मैं अपना करूंगा!”
यदि यह इतना सरल होता जैसे कि पूर्वनिश्चित्त की गई प्रतिबद्धता, एक साधारण सा कथन जो उस अवसर पर कहा गया होता, “कि हम तूफानों का सामना करेंगे।” यह एक साधारण कथन नहीं है, पर हम अपने आप को उन आनेवाले तूफानों के लिए तैयार कर सकते हैं। अपने जीवन को एक दृढ़ नींव पर बनाना, हवा और वर्षा अनिवार्य रूप से आएंगी, पर हमारे जीवन को हिला नहीं पाएँगी। शायद हमें यह नहीं चिल्लाना चाहिए कि हम उत्तम करेंगे, पर हम भयानक तूफानों में भी खड़े रह सकेंगे।
शेरीडेन वोयसी
Imagine that you’re mowing your lawn कल्पना करें कि आप एक दिन अपने बगीचे की घास को साफ कर रहे हैं, तभी दो पुलिस कर्मी आपके पास आते हैं। आपके नाम के विषय में स्पष्ट होने के बाद, जब तक कि वे आपके घर की तलाशी ले रहे थे, आपको हथकड़ी पहना कर पुलिस कार तक ले जाते हैं। जब अधिकारियों ने कहा कि वे आपको लूट पाट के लिए गिरिफ़्तार कर रहे हैं, तुम्हें अपनी बेगुनाही साबित करनी है। “हमें इसकी परवाह नहीं है कि तुमने अपराध किया है या नहीं,” तुम्हें सज़ा मिलेगी।”
और भी अधिक बुरी बात है। डकैती को सोच समझ कर किया गया या गुनाह या हत्या माना जाता है। पर हादसे के समय तुम अपने काम पर गए हुए थे, जो कि 15 मील की दूरी पर था। “यदि तुमने यह नहीं किया है,” एक लेफ्टिनेंट ने धीरे से चुटकी ली, “तुम्हारे किसी भाई ने किया होगा, क्योंकि तुम लोग सदा एक दूसरे की सहायता करते रहते हो।” अब यह साफ हो जाता है, या मान लिया जाता है क्योंकि तुम अश्वेत हो।
तुम जेल जाओ और न्यायालय में अपने न्याय की प्रतीक्षा करो। दो वर्ष बाद, अंत में तुम्हारा मुक़द्दमा सुना जाता है, और न्यायाधीश (जूरी) उस दिन तुम्हें दोषी पाता है, और तुम्हें मृत्यु की सज़ा सुनाता है, और तुम्हें मृत्यु की सज़ा के लिए भेज दिया जाता है, जहां पर तुम 28 वर्षों तक रहते हो।
यह सच्ची कहानी एक भयानक कथा है। दिसंबर 1985 में, एंथनी रे हिनटन को बर्मिगहैम, एलाबामा में दो रेस्टोरेन्ट मेनेजर की हत्या के लिए दोषी करार दिया जाता है — ऐसा जुर्म जो उसने किया ही नहीं था, ऐसी सज़ा जो उसके लिए उचित नहीं थी। उसके 30 उत्तम वर्ष उससे छीन लिए गए, जब तक कि संयुक्त राष्ट्र के न्यायालय ने उसके फैसले को गुड फ्राइडे, 2015 के दिन पलट दिया।
अन्याय से प्रभावित होना
जब मैंने रे हिंटन की कहानी सुनी, मुझे कई चीजों ने चोट पंहुचाई। सबसे पहला उसके साथ बहुत ही अन्याय हुआ था। उसके दोष को साबित उसकी माँ के घर से बरामद हुई बंदूक के आधार पर किया गया था। जिसे उन्होने हत्या का हथियार माना। जबकि वह बंदूक पिछले 20 वर्षों से चली ही नहीं थी, और उसका कोई परीक्षण भी नहीं किया गया था। रे का पहला वकील पक्षपातपूर्ण और योग्य नहीं था, जिससे उसकी सुनवाई में लगभग 10 वर्ष देर हुई। जब रे ने एक सत्य का पता लगाने वाला टेस्ट पास किया, परिणाम को न्यायालय ने स्वीकार नहीं किया।
रे को बहुत कठिन परिस्थितियों से गुजरना पड़ा। उसकी जेल की कोठरी इतनी छोटी थी कि वह कठिनाई से उसमें सो पाता था। कोठरी में रहने वाले रात को भयानक सपनों के कारण चिल्लाते थे, कुछ ने आत्महत्या भी कर ली थी। क्योंकि रे की कोठरी फ़ांसी कक्ष के पास थी, जब एक कैदी को फांसी दी गई, रे पर उसका प्रभाव हुआ।
पर मुझे रे की कहानी ने एक चीज़ से प्रभावित किया। एक रेडियो इंटरव्यू के दौरान इंटरव्यू लेने वाले ने इस बात को देखा कि रे उन लोगों के प्रति कड़वाहट से भरा हुआ नहीं था जिन्होने उसका बुरा किया था। रे ने कहा, “मैं उनसे नफरत नहीं कर सकता हूँ, “क्योंकि मेरी बाइबल मुझे सिखाती है नफरत मत करो।” जिन परिस्थितियों से वह गुज़र रहा था, यह बहुत प्रभावी कथन था।
न्यायालय की गरिमा
न्यायालय में अपने दिन में, रे ने जो व्यक्ति उसके केस से जुड़े हुए थे उनको संबोधित करते हुए कहा कि “मेरे साथ वो ही करो जो तुम को ठीक लगता है, उसने जज से कहा, “पर जब तुम मुझे इतने विश्वास के साथ फांसी पर चढ़ाते हो, तुम अपने हाथों को खून से रंगते हो।” रे ने तब जज को बोला कि वह उसके लिए प्रार्थना कर रहा था।
रे ने अभियोक्ता (प्रोसीक्यूटर) जो कि उसके प्रति बहुत ही क्रूर था, से कहा, “मैं केवल एक अश्वेत हूँ, जिससे तुम्हें कोई मतलब नहीं है।” तब उसने आगे कहा, “मैं तुम से नफरत नहीं करता हूँ — मैं तुमसे प्रेम करता हूँ। तुम सोच सकते हो कि शायद मैं सनकी हूँ क्योंकि मैं ऐसे व्यक्ति को प्रेम करने की बात कह रहा हूँ, जिसने मुझे दोषी ठहराकर फांसी की सज़ा सुनाई, पर मैं तुम से प्रेम करता हूँ।”
रे उन जिला प्रतिनिधियों, जमानतदार और पुलिस के जासूसों की ओर घूम कर बोला जिन्होंने झूठी शपथ खाई थी। “मैं प्रार्थना कर रहा हूँ कि परमेश्वर तुम्हारे किए के लिए तुम्हें क्षमा कर दे।” रे ने कहा, “तुम भी मृत्यु को प्राप्त करोगे जैसे कि मैं कर रहा हूँ — पर एक बात — अपनी मृत्यु के बाद मैं स्वर्ग में जाऊंगा। तुम कहाँ जा रहे हो?”
रे को यह ज्ञात नहीं था कि यह कठिन परीक्षा उसको कितना परखेगी, या उनको क्षमा करने की उसकी इच्छा कितनी कठिन होगी। वह 28 वर्षों तक प्रतिदिन इनके लिए प्रार्थना करता रहा। — और परिणाम?
वह उस जीवित नरक से बच गया बिना किसी रोष या कड़वाहट के।
रे को यह शक्ति कहाँ से मिली?
गुप्त शक्ति
“कोई ऊपर है जो जानता है कि मैंने यह नहीं किया,” रे ने उस दिन न्यायालय में यह कहा, “और एक दिन — वह तुम्हें यह बता देगा कि मैंने यह नहीं किया है।” रे का परमेश्वर में विश्वास कि वह अंत में साबित कर देगा, रे को आशा और शक्ति मिली। पर और भी कुछ था।
रे के शब्दों को ध्यान से सुनें तो उसकी गूंज किसी दूसरे सी सुनाई देती है।:
““मैं तुमसे नफरत नहीं करता हूँ — मैं प्रेम करता हूँ।”
“मैं कहता हूँ, अपने शत्रुओं से प्रेम करो —”
“मैं प्रार्थना कर रहा हूँ कि परमेश्वर तुम्हें क्षमा करेगा —”
“और उनके लिए प्रार्थना करो जो तुम्हें सताते हैं।”
जिस प्रकार से रे ने परमेश्वर के न्याय की प्रतीक्षा करी, उसने इस प्रकार से एक भाषण में कहे गए शब्दों के अनुसार प्रतिक्रिया करी, जिसने कि गांधीजी को शांतिपूर्वक आंदोलन का मार्ग दिखाया। यीशु के पहाड़ी पर दिये गए उपदेश हमारे प्रतिदिन के जीवन की शब्दावली का भाग होना चाहिये, जैसे कि अपना दूसरा गाल भी सामने कर दो, और एक मील अतिरिक्त चल लो।
मत्ती सुसमाचार के तीन अध्याय (5-7), यीशु के पहाड़ी पर दिये गए उपदेश को आप 15 मिनिट में पढ़ सकते हैं। पर इस सुसमाचार के संक्षिप्त भाग में, यीशु मसीह ने प्रार्थना से मतभेद तक, सम्बन्धों से संपत्ति तक सब कुछ बता दिया है। तब भी एक विषय इसमे रेखांकित है:
लचीलापन
यीशु ने इस विषय को एक विशेष कहानी जो दो मकान बनाने वालों की है, से बताया है। एक ने अपना मकान बुद्धिमानी से बनाया, गहराई तक खोदकर चट्टान पर बनाया, जबकि दूसरे ने रेती पर बनाया। तूफान आया, और दूसरा घर गिर गया, यीशु मसीह ने इसको अपनी शिक्षा में इस प्रकार से बताया :
“इसलिए जो कोई मेरी ये बातें सुनकर उन्हें मानता है वह उस बुद्धिमान मनुष्य की नाई ठहरेगा जिसने अपना घर चट्टान पर बनाया। और मेंह बरसा और बाढ़ें आई, और आँधियाँ चलीं, और उस घर पर टक्करें लगीं, परंतु वह नहीं गिरा, क्योंकि उसकी नेव चट्टान पर डाली गई थी।” (मत्ती 7:24-25)
कभी कभी पहाड़ी के उपदेश पढ़ने में असहज लगते हैं। किसी ने इस प्रकार स्पष्ट करने का प्रयास किया है कि इसके आचार विचार बिलकुल असंभव हैं। यदद्यपि ये चुनौतीपूर्ण हैं, रे हिंटन का जीवन बताता है कि इसको जिया जा सकता है चाहे अति उत्तमत्ता के साथ नहीं। जब हम इन प्रवचनों को अपने जीवन के प्रारूप को देने के लिए इसको प्राथमिकता मानते हैं, जो हमारे कदमों को दिशा देगी, यीशु मसीह कहते हैं, हम ऐसा जीवन बनाएंगे जो जीवन के तूफानों का सामना कर सके।
प्राचीन शक्ति
लचीलापन आजकल कुछ वर्षों से एक बहुत बड़ा अध्ययन का विषय बन गया है। शोधकर्ता इस बात के शोध में लगे हुए हैं कि कठिन समय का लोग किस प्रकार सामना कर सकते हैं। मार्टिन सेलिगमेन जैसे मनोवैज्ञानिक निम्नलिखित तत्वों को सम्मलित करते हैं:
- सकारात्मक भावनाएं: लचीले लोग अपने जीवन में सकारात्मक भावनाओं को बढ़ावा देते हैं, जैसे कि शांति और आशा, जबकि वे नकारात्मक भावों को जैसे कि दुख और क्रोध को आवश्यकतानुसार समायोजित कर लेते हैं।
- उपलब्धि: लचीले लोग अपने जीवन में कई चीजों को देख पाते हैं — चाहे वह काम हो, उनकी कोई रुचि हो, या कोई अन्य क्रिया — और वे यह अनुभव करते हैं कि वे इसे अच्छे से कर सकते हैं।
- संबंध या रिश्ते: लचीले लोग अच्छी दोस्ती कर पाते हैं, परिवार में एक जुटता ला पाते हैं, और समाज में अच्छे से संपर्क कर पाते हैं।
- अर्थ: लचीले लोगों को संबद्धता और दूसरों के लिए अपने से अधिक अच्छा करने के उद्देश्य की अनुभूति होती है।
एक स्वस्थ हृदय, महत्त्वपूर्ण उपलब्धि, अच्छे संबंध, एक अर्थ की अनुभूति। यीशु के पर्वत के उपदेश हमें उपरोक्त कारकों को अपने जीवन में विकसित करने का मार्ग बताते हैं। यह मानवीय प्रयासों के अनुसार नहीं पर पवित्रता के द्वारा होता है। और जब हम यह देखते हैं, कमजोर और जो अल्प हैं वे सबसे अधिक परमेश्वर की शक्ति प्राप्त करने की स्थिति में होते हैं।
शायद आप तलाक के दौर से, बेरोजगारी, दुखद घटना, या अन्याय से गुजरे हों। या शायद अभी स्थिति ठीक हो, और आपका भविष्य बहुत चमकदार लगता हो। यीशु मसीह ने कभी यह नहीं कहा कि हम जीवन के तूफानों से बच जाएंगे। एक बिन्दु पर हमारी परीक्षा होगी । कैसी भी स्थिति हो, अभी वह समय है जबकि आप अपने जीवन की नींव को शक्तिशाली बना सकते हो।
आइए हम इस पहाड़ी पर दिये गए यीशु मसीह के उपदेश को एक यात्रा की तरह देखें और यह जानें कि यह किस प्रकार होगा।
“T his joy that I have “यह आनन्द जो मेरे अंदर है, उसको वे कभी भी नहीं ले सकते जब मैं जेल के अंदर था।” यहाँ तक कि इस लंबी कठिन परीक्षा के बाद भी रे हिंटन एक रेडियो इंटरव्यू में यह कह सका। मैंने सुना कि कठिन समय में उसने शांति का अनुभव किया। “तब परमेश्वर की शांति, जो सारी समझ से परे है, तुम्हारे हृदय और तुम्हारे विचारों को मसीह यीशु में सुरक्षित रखेगी।” (फिलिप्पियों 4:7)। पर यह शांति स्वत: ही नहीं आई। रे ने बताया कि जिसने उसे साथ गलत किया था, उसे उन पर बहुत क्रोध आया, और ऐसा भी समय था जबकि वह निराशा में डूब जाता था। अपने इस तूफान के बीच में, रे को अपने हृदय को संभाल कर रखना था।
विशेषज्ञों ने सुझाव अनुसार, लचीलेपन को विकसित करने के लिए प्रथम कदम है सकारात्मक विचारों का मूल्य जानना और उन्हें उपजाना, जैसे कि शांति और आशा, जबकि नकारात्मक को दूर रखना जैसे कि कड़वाहट, दुख और क्रोध। अपने उपदेश में यीशु मसीह ने हमें ये कुछ उपकरण दिये हैं। उन्होने कड़वाहट का सामना करने के लिए क्षमा का हथियार बताया है। (मत्ती 6:12, 14-15) क्रोध पर नियंत्रण के लिए समाधान (सुलह) करना। और समानुभूति को विकसित करने के लिए हमें इसका अच्छे से वर्णन करना होगा। (मत्ती 7:12) पर शायद सबसे महत्त्वपूर्ण सहायता हमें जब मिलेगी जब हम निराशा और चिंता का मुक़ाबला कर सकेंगे।
निराशा का सामना कैसे करें
प्रथम शताब्दी में जीवन कठिन था। कोई आधुनिक औषधियाँ नहीं थीं जो बीमारी को ठीक कर सके, न ही उन लोगों के लिए कोई सामाजिक सुरक्षा थी जो उनकी सहायता कर सके जो काम करने के लिए बहुत निर्बल थे। रोमन प्रशासन गैर अनुपालकों को फांसी पर चढ़ा देते थे और भेद भाव बहुत अधिक था। इन्हीं परिस्थितियों के बीच ही यीशु ने अपने पहाड़ी के उपदेश आरंभ किए।
“धन्य हैं वे जो मन के दीन हैं, क्योंकि स्वर्ग का राज्य उन्हीं का है। धन्य हैं वे, जो शोक करते हैं, क्योंकि वे शांति पाएंगे। धन्य हैं वे, जो नम्र हैं, क्योंकि वे पृथ्वी के अधिकारी होंगे। धन्य हैं वे, जो धर्म के भूखे और प्यासे हैं, क्योंकि वे तृप्त किए जाएंगे। धन्य हैं वे, जो दयावन्त हैं, क्योंकि उन पर दया की जाएगी। धन्य हैं वे, जिनके मन शुद्ध हैं, क्योंकि वे परमेश्वर को देखेंगे। धन्य हैं वे, जो मेल कराने वाले हैं, क्योंकि वे परमेश्वर के पुत्र कहलएंगे। धन्य हैं वे, जो धर्म के सताये जाते हैं, क्योंकि स्वर्ग का राज्य उन्हीं का है। (मत्ती 5: 3-10)
जबकि पहाड़ी के उपदेश उनको सुनकर मानने के लिए हैं। (मत्ती 7:24) मेरा ऐसा विश्वास है कि यदि हम इन उपदेशों को एक कार्य सूची के रूप में देखें तो अधिकतर गलत अर्थ लगा लेते हैं। यीशु यह नहीं कह रहे हैं कि हमें अपने को गरीब बनाना है, दुखी, समर्पित करने वाला या स्वर्ग के राज्य को पाने के लिए स्वयं को प्रताड़ित करवाना है। वह बताना चाह रहा है कि हमारी कैसी भी परिस्थिति हो, हमें आनंद उसी हृदय से मिलेगा जो परमेश्वर के राज्य के मूल्य को प्रतिबिम्बित करता हो। एक अन्य अवसर पर यीशु ने कहा, यह संभव है कि तुम आशीष पाओगे चाहे तुम्हारे पास भौतिक संसाधन न हो या ऐसी परिस्थिति जिसके लिए सफलता और खुशी अनिवार्य है। (लूका 6:20-23)
इस प्रकार की शिक्षा उस धार्मिक संसार में अस्वीकार्य होंगी जो संसार भौतिक संसाधनों के होने को ईश्वर की आशीषे मानता है। यीशु के समय में “आशीषित’ जिस कारण से माने जाते थे आज भी उसी कारण से आशीषित माने जाते हैं। यदि आप एक अच्छे पद पर हैं, एक आदर्श परिवार है, यदि आप प्रसिद्ध हैं, सुंदर हैं, प्रभावशाली और सफल हैं। ये ऐसे लोग हैं जो प्रत्येक पार्टी में बुलाए जाते हैं। पर ये वो लोग नहीं हैं जिन्हें यीशु आशीषित करता है।
यीशु ने अपना उपदेश इस आश्चर्यजनक नोट के साथ आरंभ किया: उसका साम्राज्य सबके लिए खुला है, चाहे उनकी स्थिति कैसी भी हो। “धन्य हैं वे, जो मन के दीन हैं। क्योंकि स्वर्ग का राज्य उन्हीं का है।” (मत्ती 5:3) जो शोकित हैं और नम्र हैं (पद 4-5) धन्य हैं वे जो धर्म के भूखे और प्यासे हैं, पर न्याय नहीं पाते हैं। (पद 6) जो दयावन्त हैं और धार्मिकता के साथ रहते हैं। (पद 7-8) वे जो मेल करने वाले हैं, न कि राजनैतिक तेजतर्रार हैं (पद 9) जो सच्चाई और यीशु के पीछे चलने के कारण सताये जाते हैं (पद 10-11)। यीशु ने देखा कि लोग समाज के द्वारा ठुकराये जाते हैं और उसने अपना साम्राज्य पेश किया। उस साम्राज्य में आराम, न्याय, भरपूरी, सब संसाधन के अतिरिक्त उस सब में भागीदारी है जो यीशु का है।
और यह हमारी आशा का आधार बन जाता है।
समझदारी, सकारात्मक सोच और कई तकनीकें हमें आशावादी भावनाओं को उपजाने में सहायक हो सकती हैं। पर सच्ची आशा को इस कारण पर विश्वास करना होगा कि हमारा भविष्य भिन्न होगा, और हमारा भविष्य बदल जाएगा। यही यीशु के पहाड़ी उपदेश हमें यही सुझाव देते हैं। जैसे कि रे हिंटन ने कहा, “कोई ऊपर है जो जानता है।” और उसने आराम, न्याय और संसाधनों की प्रतिज्ञा करी है।
एक बार मैंने एक सम्मेलन जो कि मसीही सहायक-कर्मियों के लिए जो यूरोप में काम कर रहे थे। यह मसीही प्रचारक शरणार्थियों, तस्करों और जो आर्थिक परिस्थितियों के कारण बहुत गरीब हो गए थे उनकी सहायता कर रहे थे। “पहाड़ी उपदेश उनके लिए क्या कहते हैं जो दूसरों की सेवा कर रहे हैं।” मैंने एक सुबह पूछा। उनका उत्तर आया:”जबकि दूसरों ने उन्हें प्रताड़ा, नकारा और शोषित किया, हमारा परमेश्वर उनके लिए है।” फिर मैंने पूछा पहाड़ी उपदेश तुम्हें एक मसीही सेवा कर्मी होने के कारण क्या कहते हैं। “एक आशा है – उनके लिए जिनके साथ हम काम करते हैं, और हमारे लिए भी।”
Peace to Counter Worry
If the Sermon on the Mount counters despair by offering hope, its next most practical help with emotions is in managing worry. As teenagers we can worry about fitting in. As twenty-somethings we can worry about careers and marriage partners. As adults we can worry about bank loans and our family’s well-being. And with advertisers ready to exploit such fears to sell their wares, our sense of worry can be constantly stoked.
In his Sermon Jesus gives two reasons to unlearn the pervasive habit of worry. One is practical: “Can any one of you by worrying add a single hour to your life?” he asks (MATTHEW 6:27). No. So, “Do not worry about tomorrow Each day has enough trouble of its own” (v. 34). Give up on a strategy that just doesn’t work.
His second reason is theological: to worry is to forget God’s activity in our lives. To make his point, Jesus leads us through a guided meditation on the natural world. Instead of worrying about our needs, he says:
Look at the birds of the air; they do not sow or reap or store away in barns, and yet your heavenly Father feeds them. Are you not much more valuable than they?
See how the flowers of the field grow. They do not labor or spin. Yet I tell you that not even Solomon in all his splendor was dressed like one of these. If that is how God clothes the grass of the field, which is here today and tomorrow is thrown into the fire, will he not much more clothe you—you of little faith? (MATTHEW 6:26, 28–30)
Watch the wrens and the sparrows; see how God “feeds” them. Look how beautifully “dressed” the fields are with their daisies and dandelions. Look— God is active right now, providing for creation. He is active in your life too. He will look after you.
It can be helpful to follow Jesus’s advice literally here. How about setting aside time this week for an unhurried walk in nature? You could set out slowly, feeling each footstep on the path, relaxing your body by breathing slowly and deeply. Then you could intentionally start noticing your surroundings—the sun and its warmth on your skin, the breeze and its gentle touch on your face, the rustling leaves, the birdsongs. Watch creation flourish without you doing a thing. Then bring whatever it is that’s vexing you to God, confident that …
…your heavenly Father knows that you need them. But seek first his kingdom and his righteousness, and all these things will be given to you as well. (MATTHEW 6:32–33)
Jesus helps us manage the hopes, cries, and worries of the heart. And a healthy heart is our first step toward finding strength.
I magine for a moment that your country is in crisis, and you are elected President to fix it. Imagine you have a guaranteed plan to bring peace and prosperity to the nation, and you can call anyone you wish to serve by your side. What kind of people would you choose? You would probably pick the best leaders, economists, and strategists you could find, right? Popular people. Influential people. People with charisma and power. No one would pick little, insignificant people for such an important task.
Unless they were Jesus.
It’s fascinating to consider who was in the audience as Jesus gave his Sermon. In addition to the disciples, we’re told a crowd listened on (MATTHEW 5:1, 7:28). That crowd was probably made of people from the surrounding areas who’d just sought Jesus for healing (4:23–25). And what a motley group they were. Some had been sick, others had suffered seizures, some had been paralyzed, and a few had been demon possessed. They would’ve included simple farmers, peasants, and homemakers— not society’s movers and shakers. And so what Jesus says next to them is profound—and resilience-building.
People of Influence
Jesus’s words become more personal here. Instead of referring to “those” whose lives are grounded in the values of his kingdom, he says, “Blessed are you when people insult you, persecute you and falsely say all kinds of evil against you because of me. Rejoice and be glad, because great is your reward in heaven” (MATTHEW 5:11–12).
Then he says:
You are the salt of the earth. But if the salt loses its saltiness, how can it be made salty again? It is no longer good for anything, except to be thrown out and trampled underfoot. (MATTHEW 5:13)
Think of the saltshaker you use to prepare meals— salt enhances flavor. Now think of a butcher curing meat to keep it from going rotten—salt prevents decay. Jesus uses this image to enlist his audience into a highly significant calling. They are to be enhancers of what is good in their villages and homes, and they are to positively influence society to stop it from going bad. These peasants and homemakers are to be his change-agents in the world.
I once visited an impoverished neighborhood of Santo Domingo in the Dominican Republic. Homes were made of corrugated iron, and electricity wires dangled live above us. I was there to interview families about how churches were helping them combat unemployment, drug use, and crime.
In one alleyway I climbed a rickety ladder to a small room to meet a mother and her son. But just a moment later, someone rushed up saying we had to leave immediately. It turned out a machete-wielding gang leader was gathering a mob to ambush us. We left quickly!
We visited a second neighborhood, but there we had no problem. Later I discovered why. As I visited each home, another gang leader (the most feared in the region) stood outside guarding us. It turned out his daughter was being fed and educated by the church, and because Christians were standing by her, he wanted to stand by us.
Those Christians in Santo Domingo had neither social status nor political power. Most were as poor as their neighbors. But they were enhancing their community and halting its decay. They were being the salt of the earth, and their community was changing.
People of Light
But Jesus has something else to say to those listening to him:
You are the light of the world. A town built on a hill cannot be hidden. Neither do people light a lamp and put it under a bowl. Instead they put it on its stand, and it gives light to everyone in the house. In the same way, let your light shine before others, that they may see your good deeds and glorify your Father in heaven. (MATTHEW 5:14–16)
Think of a city’s buildings lit up at night—light pierces darkness. Think of a torch pointed into a dark room—light reveals what is hidden. In the same way, Jesus calls his audience to shine with good deeds. By doing so they will help dispel the world’s darkness, reveal the unseen God they’re following, and show their neighbors another way to live.
You’ve probably never heard of James and Anne before. They haven’t been on TV, written a book, or held office. They’re just a young Christian couple living in communist China. Until recently China had a one-child policy. Any couple having a second baby faced discrimination and financial penalties. So when Anne became pregnant again the couple knew what their government wanted them to do: they needed to abort.
This pressure only intensified when medical checks revealed the baby Anne carried had significant heart defects. Their doctor told them plainly, “You need to abort.” In a country where little support exists for the disabled, it was the “logical” thing to do.
Then came pressure from their family. James and Anne could never afford to raise a child with special needs alone, and in their culture a disabled child would bring stigma to them all. Their parents told them flatly, “You need to abort.”
Their government, doctor, family, and culture—James and Anne faced pressure on every side. But to each they gave the same reply: “We will not abort. Even if our baby is disabled, she is a gift from God and made in his image.” Little Chen Yu was carried to term and born safely. James and Anne had seven weeks with her before she died.
James and Anne’s bold deed didn’t go unnoticed. Their doctor was so moved by their faith he said, “If every parent treated their children as you did, we would have a different nation.” He then asked if they would speak to his medical students, sharing the reason why they treated Chen Yu the way they did. And so a couple without power or position became a light to their world, showing another way to live by giving the world a glimpse of the unseen God.
Spirit-Empowered Achievement
“You are the salt of the earth… You are the light of the world…” These words of Jesus are significant considering our theme. As the experts say, a second factor in building resilience is having a sense of achievement, whether through pursuing a goal, mastering a skill, or doing work that is personally significant.
While Jesus never tells us to master a hobby or set ourselves a career goal to achieve, he sets us up for accomplishment of a higher order. Instead of choosing the elite and powerful to join his mission, Jesus picks the least likely candidates: common folks who do practical acts of salt-and-light love in the power of his Spirit.
Toward the end of his Sermon, Jesus talks about prayer, assuring us that we can trust God to give us what we need. “Which of you, if your son asks for bread,” he says, “will give him a stone? Or if he asks for a fish, will give him a snake? If you, then, though you are evil, know how to give good gifts to your children, how much more will your Father in heaven give good gifts to those who ask him!” (MATTHEW 7:9–11). On another occasion Jesus said something similar, but with an intriguing twist: “If you then, though you are evil, know how to give good gifts to your children, how much more will your Father in heaven give the Holy Spirit to those who ask him!” (LUKE 11:13, EMPHASIS ADDED).
The Holy Spirit is key to living out all the Sermon calls us to. The Spirit comes to live inside us when we believe, reminding us of Jesus’s words and empowering us to live them out (JOHN 14:15–18, 23–26). As the apostle Paul later explained, it’s by the Spirit that Jesus works from within to make us more loving, joyful, faithful, and kind (GALATIANS 5:16–26), and, like a river, flows through us to touch and serve others (JOHN 7:38–39; ACTS 1:8). This means the Christian life isn’t about trying harder but asking God’s Spirit to fill us and work through us. It means salt-and- light accomplishment requires little more than our humility, availability, and willingness.
We might feel like nobodies some days, lacking influence in the world. But Jesus positions us to be people of profound achievement. We are stronger than we know.
Scan the magazine racks at the checkout today. Look at their endless headlines of who has found love and lost love, and their endless lists of how to lure love and make love. Look at the movies we watch or listen to the lyrics of the songs on your playlist. Love is the dominant theme, revealing our deep longing for relationship.
According to the experts, strong relationships are key to developing resilience. “Very little that is positive is solitary,” says psychologist Martin Seligman. “Other people are the best antidote to the downs of life and the single most reliable up.” We withstand life’s storms better when we have good marriages, friendships, and connections to our community. The problem is, while we may long for this, powerful forces seek to drive us apart.
Jesus devotes considerable time in his Sermon to relationships, highlighting four main forces that destroy them—anger, unfaithfulness, false promises, and retaliation (MATTHEW 5:21–42). Because relationships are at the heart of life with God (22:37–40), they take center place in his teaching. And because they’re so important, his words here can be blunt.
From Anger to Reconciliation
Having described the blessings of his kingdom, Jesus turns now to anger. Trace the start of the row, the swing of the fist, or the stab of the knife to its root and you will find the seed of festered anger. This, Jesus says, reveals a spirit of murder (MATTHEW 5:22). And the first sign of its presence is when we start belittling others with our words (5:22B).
We see the truth of this everywhere we look: in the schoolyard where cruel names leave lasting scars, on the sports field where players sling racial slurs, on social media where antagonism has become an artform, to horrors like the 1994 Rwandan genocide where Hutus were stirred by fanatical leaders to call their Tutsi enemies “cockroaches.”
Jesus knows we’ll have disagreements. But when they happen, he says, don’t let loose with the insults. Instead, try to reconcile:
Therefore, if you are offering your gift at the altar and there remember that your brother or sister has something against you, leave your gift there in front of the altar. First go and be reconciled to them Settle matters quickly with your adversary who is taking you to court. Do it while you are still together on the way. (MATTHEW 5:23–25)
If you know you’ve offended someone at church, stop worshipping and resolve the issue. If a dispute breaks out with a neighbor, deal with the matter quickly before it progresses to court. As much as it depends on you, Jesus says, reconcile.
From Unfaithfulness to Faithfulness
In his unsettling book The Johns, journalist Victor Malarek reveals the motivations of men who buy the services of prostitutes. In most cases, pornography precedes the transaction. The men fantasize about the experience they want, then find a woman who will act it out. The deed follows the fantasy.
Jesus revealed the same pattern two millennia earlier. Adultery starts with a fantasy, making the fantasy itself sin (MATTHEW 5:28). Since the heart is central in everything for Jesus, he uses hyperbole to ram his corrective message home: be faithful.
If your right eye causes you to stumble, gouge it out and throw it away And if your right hand causes you to stumble, cut it off and throw it away. (MATTHEW 5:29–30)
If your eye or hand starts leading you astray, go blind and lame before your heart and body follow. Close your eyes, switch the channel, shut down the computer, walk away, taking every measure to make the sin impossible. Marriage is a serious commitment (5:32), so stay faithful to your current or future spouse. Don’t join up with someone who isn’t yours to have, Jesus says, even in your imagination, and don’t leave someone you’ve bound yourself to.
From False Promises to Trust
Too many marriages, friendships, and business relationships are ruined each day by broken trust. Promises are made but forgotten. Contract loopholes are exploited. Jesus addresses this destructive relational force next.
In Jesus’s day, it was common to promise something by swearing an oath. But if you were clever with your wording, you could make yourself a legal loophole. Oaths sworn “by God” were always binding, but those sworn by “heaven,” “earth,” “Jerusalem,” or something else weren’t. Choose your words carefully then, or you might make a promise you don’t need to keep!
Jesus would have none of it. Since nothing is independent of God—whether heaven, earth, or anything else—any oaths made by them are made to God anyway. Jesus then denounces oaths altogether because they make a regular Yes or No redundant (5:33–36). Instead, he says, be truthful:
All you need to say is simply ‘Yes’ or ‘No’; anything beyond this comes from the evil one (MATTHEW 5:37).
From Retaliation to Grace
Finally, Jesus tackles the desire to retaliate. While Jewish law already placed limits on how much retribution could follow a crime (if you knocked out my tooth, for instance, I couldn’t take your life—EXODUS 21:23–25, MATTHEW 5:38), Jesus gives an alternative response to injustice that is so radical it has shaken history ever since. He sets it up by offering three scenarios.
In Jesus’s time a slap to the cheek wasn’t so much assault but insult; to be sued for your shirt meant you were too poor to pay your bills and were now losing your very clothes, and to carry a Roman soldier’s pack was a demeaning task often demanded of a Jew. Jesus uses these humiliating experiences to describe a response to injustice that empowers a victim to respond without retaliating (MATTHEW 5:39–41). Instead of striking back when slapped, turn the other cheek. If they sue for your shirt, volunteer your coat as well. Instead of resisting a Roman’s orders, go further than required. In short, neither submit to the abuse nor hit back, but respond in a way that sets a higher example by showing them grace.
But I tell you, love your enemies and pray for those who persecute you, that you may be children of your Father in heaven. (MATTHEW 5:44-45)
This is what Ray Hinton did throughout his long incarceration, praying each day for his enemies. Sometimes extending such grace can even lead the enemy to change.
One Saturday night in 1996, nineteen-year-old Danny Givens walked into a war veterans’ club to commit armed robbery. Unbeknown to him, off-duty police officer Art Blakey was inside. When Art confronted him, Danny shot Art in the side. Soon Danny was in prison.
With charges of attempted murder and armed robbery, Danny faced more than thirty years in jail. But, surprisingly, Art came to Danny’s defense. “Let’s not throw away the key on this young man,” Art told the judge at Danny’s sentencing. “I think he should be given another chance.” The judge, moved to tears, gave Danny eighteen years instead.
Art kept track of Danny’s progress in the years that followed, even checking in on his mother. When Danny became a Christian in prison, Art again went into action, requesting the authorities grant him an early release. “The whole time I was in prison,” Danny reflected, “I knew this gentleman had nothing but love for me. It was almost like I’d shot an angel.”
Danny was released on probation after twelve years inside. Walking down the street one day he was stopped by an officer in a police car. “I’m so proud of you,” the officer said, getting out and giving Danny a hug. “I love you and I forgive you.” It was Art.
“My calling in life ever since has been to become the kind of man Art was,” says Danny, who became a community worker as a result of Art’s grace toward him. Had Art sought revenge, he would’ve just become like his enemy. By loving his enemy, his enemy became like him.
Jesus’s teaching in this part of the Sermon is demanding, but our longing for relationship won’t be fulfilled with Hallmark card sentimentality. And while we will fail these ideals often, the Holy Spirit is ready to help us step toward them. A resilient life isn’t built on anger, unfaithfulness, false promises, or retaliation. The more we seek the Spirit’s help to pursue reconciliation, faithfulness, truthfulness, and love, the more we, and people like Danny, will grow strong.
H uman beings don’t just hunger for food and water. We hunger also for meaning— a sense that our lives fit into a bigger purpose, and there are answers to why we exist and why the world is the way it is. Resilience researchers affirm that we are strongest when we find this meaning by serving a cause greater than ourselves.
The Sermon on the Mount speaks to this need too, presenting us with a cause that is bigger than making money (6:19–24), bigger than self-centered spirituality (6:1–18), one full of peril and reward (7:13–23) and requiring total commitment (6:24, 33). It is the cause of the kingdom of God—a life lived under God’s care and for his purposes.
The Prayer of Resilience
The Sermon on the Mount speaks to this need too, presenting us with a cause that is bigger than making money (6:19–24), bigger than self-centered spirituality (6:1–18), one full of peril and reward (7:13–23) and requiring total commitment (6:24, 33). It is the cause of the kingdom of God—a life lived under God’s care and for his purposes.
Our Father in heaven . . .
The prayer starts with God, the foundation of life itself. And it tells us that God isn’t some distant deity uninvolved in our lives, but one who is close, caring, and protecting. If resilience is based on relationships, this is the primary one. God loves us like a father and embraces us as his precious children.The prayer starts with God, the foundation of life itself. And it tells us that God isn’t some distant deity uninvolved in our lives, but one who is close, caring, and protecting. If resilience is based on relationships, this is the primary one. God loves us like a father and embraces us as his precious children.
. . . may your name be kept holy.
The reason evils like greed, cheating, and retaliation are so wrong is because at the heart of reality sits One who is good, pure, and holy. As Dallas Willard says, until we orient our lives around this God, revering his name above all others, the human compass will always be pointing in the wrong direction.
May your kingdom come soon.
While God is our rightful ruler, he has given us the freedom to reject him. And we have—as history’s wars and brutality show. So here we pray for the world to come under his care and guidance again, so that evil will cease and peace will return.
May your will be done on earth, as it is in heaven.
God’s will is already done in heaven; now we pray for it to be done on earth—in our homes, offices, universities, and neighborhoods. This is our “grand cause,” the ultimate purpose of our lives—to raise children, teach class, build roads, make art, and pursue whatever tasks we’ve been given as if God were doing them. After all, we are his change-agents in the world, making it a little more like the heaven he will one day make it to be.
Give us today the food we need . . .
God cares about our daily needs too, whether for food, clothing, employment, or housing. We haven’t been left alone to fend for ourselves. We ask him to supply our needs, the needs of those around us, and of all else who lack.
. . . and forgive us our sins . . .
Whether in thought or deed, each of us has gotten angry, been unfaithful, broken promises, and sought revenge. Each of us, in truth, want our wills to be done rather than God’s. So here we find forgiveness for our part in the world’s evil. Jesus died and rose again so our sins could be washed off us like mud in a cleansing rain. Unforgiven sins leave us weak, but God’s forgiveness makes us strong.
. . . as we have forgiven those who sin against us.
Since bitterness and resentment grow so easily, it’s best to deal with them quickly. Who has wronged you? How can you help clear the air? This part of the Prayer can help us recall anyone we’ve wronged too, so we can mend the tears in our relational fabric.
And don’t let us yield to temptation, but rescue us from the evil one.
The problems of our world aren’t caused by humans alone. There’s an “evil one” also at work, who tempts, accuses, and condemns. So we pray for strength to make choices in line with God’s faithful nature. We call on his Spirit in the face of temptation to empower us to live as Jesus would in our situation.
For yours is the kingdom and the power and the glory forever. Amen
While not found in the earliest biblical manuscripts, the Prayer’s popular closing is appropriate. Beginning with God, we now end with God—recognizing his ownership of the world and worthiness to direct our lives. Ultimately, life and its meaning is all about him.
Humans seek answers to the world’s problems and long to serve a cause greater than themselves. In the Sermon, Jesus offers us a way forward: “But seek first his kingdom and his righteousness, and all these things will be given to you as well” (MATTHEW 6:33).
Staying Strong
Ray Hinton found a strength that helped him endure thirty years of injustice without being consumed by rage. Art Blakey found the strength to respond to harm in a way that helped his attacker change. Neither found this strength through self-will alone. Rain poured into their lives, streams rose, and winds blew against them, yet they survived their trials by putting the words of Jesus’s Sermon on the Mount into practice (MATTHEW 7:24–25).
Like them, we may face seasons of rain pelting our windows and thunder rattling our roofs, when winds of loss, betrayal, or our own wrong choices leave us battered. Jesus never said we’d be spared the storms of life, but he is present with us when they come (8:23–27). And as the findings of contemporary psychology confirm, the teaching in his Sermon can give us the foundation we need to withstand their gusts and grow through them.
A healthy heart, significant achievement, strong relationships, a sense of meaning. In Jesus’s reign, such things aren’t reserved for those with resources or status; they’re given to seemingly weak and insignificant people with hands ready to receive them. Christ’s Sermon provides the tools, and his Spirit provides the power for little people like us to grow strong.